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लाशों की ढेर पर "विकास"लाशों की ढेर पर "विकास"
(एक देशी अनुसंधान)
जब विकास, भूमि अधिग्रहण, सीएनटी एवं एसपीटी एक्ट जैसे ज्वलंत मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की बहस होती हैं, तो इसे सुनकर ही आदिवासी जगत सिहर उठता है. आखिर
क्यों? "आदिवासियों का विनाश-एक देशी अनुसंधान".
सर्वप्रथम,
"विकास" है क्या? कहाँ, किसका और कैसा विकास? समाज-उन्नति में
"विकास" एक vague (अस्पष्ट, धुँधला) शब्द है. इसका कोई सिर-पैर नहीं. खासकर हमारे
राजनेता "विकास" के लिए औद्योगीकरण को ही बढ़ावा देने की भूलकर जाते है.
उनके मतानुसार; वगैर कल-कारखाना खोले "विकास" की कल्पना हो
ही नहीं सकती. आइये, अब देखते हैं इस
"विकास" के नाम पर आदिवासियों का "विनाश" किस तरह होता है. यह
निश्चित है कि आदिवासी बाहुल इलाके में ही कारखाने खोले जायेंगे, क्योंकि इन्ही के पास जमीन उपलब्ध है. अब इनका परिणाम
देखें : 1. आदिवासी विस्थापन का दंश झेलते हुए कराह उठेंगे; वे रोटी के लिए महानगरों की ओर कूच कर जायेंगे, जहाँ वे इसकी चकाचौंध में विलीन हो जायेंगे; 2. उस कारखाने को चलाने के लिए बाहरी तकनीशियनों एवं
प्रशासनिक अधिकारियों की बहाली होगी, हाँ, एकाध चतुर्थ श्रेणी में आपकी नियुक्ति हो, यह अलग बात है; 3. मान लो; उस कारखाने में 1000 कर्मचारी हैं, तो वहां की जनसंख्या होगी -
स्वयं+बीबी+4 बच्चे+माता-पिता+भाई-बहन=10 व्यक्ति. अतएव 1000 x 10 = 10000; 4. अब इतनी बड़ी आबादी के लिए इन्हें तमाम तरह की
सुविधाएं चाहिए, यथा - आवास, बिजली, पानी और सड़क, रेल-बस, परिवहन, ठेकेदार, स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी, पोस्ट ऑफिस, बैंक, अस्पताल, मॉल व दुकान, सिनेमा घर, बारात घर, रेहड़ी-खोमचे वाले, मंदिर-मस्जिद, सिक्यूरिटी के लिए थाना-पुलिस, नगर निगम-पंचायत इत्यादि. इन संस्थानों में आपका कोई role नहीं. अत: फिर 10000 की आबादी आ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं. अब कुल जनसंख्या हो गई - 10000+10000=20000. ये लोग प्रज्जन विरोधी भी नहीं. अत: अहिस्ते-अहिस्ते
इनकी जनसंख्या भी बढ़ती ही जाएगी. जिसके परिणामस्वरुप एक दिन ऐसा आयेगा, जब आदिवासी सदा-सदा के लिए "राम नाम सत्य
है" हो जायेंगे. अब भी वक्त है. जागो, उठो और संघर्ष करो.
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